रचनाधर्मिता का आधार है प्रयोग : डॉ योगेंद्र चौबे

प्रयोग ही महत्वपूर्ण है भास से कालिदास तक एवं हबीब तनवीर से लेकर देवेंद्रराज अंकुर तक हमें प्रयोग शीलता के उदाहरण मिलते हैं

(रिपोर्ट: गौरव चौहान) ब्लैक सॉइल थिएटर  के वेबिनार व्यख्यान श्रृंखला 21 में अतिथि वक्ता के रूप में छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध  निर्देशक एवं रंग विशेषज्ञ डॉ योगेंद्र चौबे थे।

 

 

 

उनका परिचय कार्यक्रम की संयोजक डॉ. सुरभि विप्लव ने कराते हुए कहा कि विगत 20 वर्षों से डॉ. योगेन्द्र चैबे रंगमंच एवं छत्तीसगढ़ी फिल्म के क्षेत्र में सक्रिय हैं। डॉ चौबे ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक (परिल्पना निर्देशन में विशेषज्ञता) किया तथा वर्तमान में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के थियेटर विभाग में अध्यापन का कार्य कर रहें हैं। बतौर अभिनेता, निर्देशक लेखक परिकल्पक के रूप में छत्तीसगढ़ी फिल्म व रंगमंच को नई दिशा देने में डॉ.चौबे का महत्वपूर्ण स्थान है इनके प्रमुख नाटक लुकुवा का शाहनामा, माया नगरी, गधों का मेला, बाबा पाखण्डी, मधुशाला, सत्य हरिश्चंद्र, पहटिया, ग्लोबल राजा, मालती माधव, युगदृष्टा, अन्वेषक, बड़े भाई साहब आदि हैं एवं इनके द्वारा निर्देशित फिल्में – महू दीवाना तहू दीवानी, बहा, धरती अब भी घूम रही है एवं अमृता प्रीतम की कहानी पर आधारित गाँजे की कली है। बतौर अभिनेता निर्देशक डॉ योगेंद्र चौबे छत्तीसगढी कला जगत में विशेष स्थान रखते हैं। डॉ विप्लव ने आगे परिचय करते कहा डॉ चौबे एनएसडी के एकेडमिक कौंसिल, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सदस्य भी हैं। डॉ. चौबे आज भी लगातार दोनों विधाओं में सृजनात्मक कार्य कर रहें हैं।सिनेमा और रंगमंच की प्रयोगधर्मिता विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ चौबे ने कहा कि भारतीय परम्परा गुरु शिष्य की रही है। नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय में ही यह देखने को मिलता है। जहां आत्रेय आदि पांच ऋषि आचार्य भरत के सामने नाट्य विषयक प्रश्न पूछें और उन्हीं को उत्तर देते पंचमवेद के रूप में नाट्यशास्त्र आज हमारे सामने है। इसलिए रचना धर्मिता का आधार प्रयोग है। उन्होंने आगे कहा आपके नाट्य में शिल्प, कथा, द्वंद, रस आदि की ताजगी होनी ही चाहिए। और वह ताजगी हमें समाज से ही मिलेगी। नाट्यशास्त्र के एक कारिका में आचार्य भरत कहते भी हैं कि तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन ही नाट्य है। डॉ चौबे ने रचनाधर्मिता पर अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा कि प्रयोग ही महत्वपूर्ण है भास से कालिदास तक एवं हबीब तनवीर से लेकर देवेंद्रराज अंकुर तक हमें प्रयोग शीलता के उदाहरण मिलते हैं इन सभी महान लोगों ने समयानुसार अपनी भाषा गढ़ी और नए प्रतिमान स्थापित किए इसलिए प्रयोग ही महत्वपूर्ण है हमें इस बात को समझना होगा कि जैसे-जैसे समाज बदलता है वैसे-वैसे रचनाधर्मिता भी बदलती है।वेबिनार में विदर्भ के वरिष्ठ रंगकर्मी तथा मुंबई विश्व विद्यालय के प्राध्यापक डॉ. मंगेश बनसोड़ ,दिल्ली से श्री सतीश आनन्द, श्री राम प्रकाश यादव, डॉ मनीष कुमार जायसवाल,गौरव चौहान जैसे विद्वतजनों के साथ-साथ शोधार्थी व छात्र-छात्राएं भी शामिल रहें। जिन्होंने विषय से सम्बंधित अपनी जिज्ञासायें प्रश्नों के माध्यम से सामने रखीं। अतिथि वक्ता ने सवालों के उत्तर देकर उनकी समस्त जिज्ञासाओं को शांत किया। वेबिनार का तकनीकी पक्ष राजदीप राठौड़ और राहुल वकारे ने किया और पूरे कर्यक्रम को सफल बनाने में रंगकर्मी जयदेव दास , शिव कुमार, आकाश कांबले , अश्विनी रोकड़े, विकास गोस्वामी ,प्रतीक महंत ,सुहास नगरले ,रंजीत यादव आदि का सहयोग प्राप्त हुआ। सभा के अंत में संस्था की संस्थापक डॉ सुरभि विप्लव ने सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया और कार्यक्रम को सफल बनाया।

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