चौथा स्तंभ अतीत से वर्तमान तक

संपादकीय

 

 

आज के परिवेश में लगातार देखने को मिल रहा है कि लोग आत्मीय संबंध से ज्यादा मनीभाई को महत्व देते जा रहे हैं, साथ ही लोगों के मन में अब न्याय और अन्याय की कोई जगह नहीं बची है। अक्सर देखने को मिल रहा है कि नैतिकता जैसे शब्द अब सिर्फ किताबों और किस्से कहानियों तक रह गए हैं। नैतिकता की बात सिर्फ इसलिए कर रहा हूं कि वर्तमान परिवेश में अब सरकारी तंत्रों और उनको नियंत्रित करने वालों के बीच जो आपसी सामंजस्य बन बैठा है वही अब देश प्रदेश के लिए खतरनाक होता जा रहा है। बहुत पहले हल्की सी सुगबुगाहट भी भूचाल ले आती थी, फिर शिकायतों का एक दौर चालू हुआ जिसमें कार्रवाई भी होती थी लेकिन अब शिकायतें सिर्फ एक फ़ाइल बन कर नियंत्रण करने वालों के लिए मोहरा बन गई है। एक समय था जब पत्रकार ऐसे हुआ करते थे, जिन्हें सोचते ही कुर्ता पैजामा, बड़ी दाढ़ी, और एक कपड़े का थैला याद आता था, उस वक्त अखबार में पत्रकार की लिखी एक लाइन भी ऐसी होती थी मानों सुबह भूचाल आ गया हो, अगर पत्रकार ने किसी का नाम लिख प्रश्न वाचक चिन्ह ही लगा दिया तो पूरा देश/प्रदेश हिल जाया करता था। उस वक्त सोशल मीडिया जैसी कोई बात थी ही नहीं इसलिए समाचार और उसमें लिखे शब्द लोगों की जुबान में अक्षरशः होते थे। साथ ही समाचार में अच्छा या बुरा सिर्फ लिखा जाने से लोगों की तकदीर बन या बिगड़ जाती थी या यूं कहें कि अखबार ही राजा को रंक, और रंक को राजा बना देता था। फिर अखबार में यह भी दौर आया कि विज्ञापनों का बोलबाला बढ़ने लगा और धीरे धीरे पूंजीपति अखबारों की विश्वसनीयता तय करने लगे वहीं पत्रकारों में भी बदलाव आया और पत्रकारिता एक पेट भरने मात्र का जरिया बनता गया। यह दौर फिर भी ठीक था कि एक झोला वाला पत्रकार और एक कार वाला पत्रकार पर वर्तमान में इससे आगे साइकल, मोटरसाइकिल, कार, कबाब वाले भी जिनको पत्रकारिता का ककहरा भी नहीं आता वो भी पत्रकार कहलाने लगे हैं।

प्रशासनिक स्तर पर पत्रकार व पत्रकारिता कपडों के साथ देखी जाती है अब ऐसी स्थिति में कुर्ता पैजामा वाला और सूट बूट के मध्य थ्री पीस, जीन्स, पेंट शर्ट, बेल्ट जूता, घड़ी यानी जो पत्रकार जितने ज्यादा  पहनता है उनकी इज्ज़त उसी तरह तय होती है। कई कुर्ता पैजामा वाले पत्रकार जो कि वास्तव में पत्रकार हैं उन्हें अपनी कलम बंद करनी पड़ रही है या उनको अखबार बंद करना पड़ रहा है।

वर्तमान परिस्थितियों में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कुछ हद तक अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। यदि स्थितियों पर गौर करें तो हम पाएंगे कि पत्रकार निष्पक्ष होने के बजाए कुछ हद तक व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष के हिमायती बन अपनी पत्रकारिता कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं और उनके प्रवक्ता की भूमिका में नजर आ रहे हैं। उनके द्वारा अपने आकाओं की हर छोटी से छोटी बातों को खबर बनाना फैशन सा बन गया है।

पत्रकारिता की इसी स्थिति को देखकर नेता, अधिकारी, कर्मचारियों के बीच आपसी सामंजस्य बन गया है जिससे पत्रकार उनकी नजर में उनके लिए सिर्फ प्रचार का माध्यम मात्र रह गया है।
यही कारण है कि आज कितने भी बड़े घोटाले का पर्दाफाश हो जाए समाज और शासन के कानों में जूं तक नहीं रेंगती और सत्ता दल , विपक्ष और बड़े अधिकारी मामलों को शांत करने में लगे रहते हैं , जिससे भ्रष्टाचार के मामलों को लेनदेन कर निपटारा करना नियति बन चुकी है।

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